उत्तर प्रदेशदेश

मूकदर्शक जनता :- “समाज की नपुसंकता”

लेखिका:पूजा गुप्ता (मिर्जापुर)

मूकदर्शक जनता :- “समाज की नपुसंकता

स्वर्ण युग कहा जाने वाला हमारा देश अब पतन के रास्ते पर अग्रसर होता चला जा रहा है, जहां देखो लूट, डकैती, चोरी, बलात्कार जैसी घटनाओं को अंजाम देने के लिए लोग किसी भी हद को पार कर रहे हैं। आखिर! यह समाज को क्या संदेश दे रहे हैं। इस प्रकार की घटनाएं आज कल टीवी न्यूज़ चैनल सभी जगह इस तरह नमक मिर्च लगाकर की दिखाएं जाते है, घटना का पूरा चलचित्र दिमाग के कोमल मन पर आघात कर देता है। लोगों के सोचने समझने की शक्ति भी समाप्त हो चुकी है उन्हें अच्छे बुरे का किसी प्रकार का कोई ज्ञान नहीं रहा है। मां-बेटा, भाई-बहन, पति-पत्नी सभी आपसी झगड़ों में फंस कर एक दूसरे के साथ गलत व्यवहार कर रहे हैं। बरसों के बने बनाए रिश्तें पर प्रश्न चिन्ह लगता जा रहा है। यह समाज हमारे आने वाली पीढ़ियों को जो संदेश दे रहा है उसकी स्थिति आगे चलकर भयानक हो जाएगी। बड़ी-बड़ी महानगरों में दरवाजे की घंटी बजते ही एक अकेली महिला दरवाजा खोल देती है उसके बाद चोर उचक्के चाकू की नोक पर उसे लूट कर भाग जाते हैं और उससे भी उनका जी नहीं भरता तो उनका बलात्कार कर देते हैं। किसी ना किसी बहाने से समाज का हर व्यक्ति जो गलत है इस प्रकार की घटनाओं को अंजाम देने में जरा भी शर्म नहीं करता है और सबसे बड़ी बात यह है कि जो भी वारदातें होती हैं उसे घरवाले बताना उचित नहीं समझते हैं, उसे जनता के सामने लाने में भी उनमें साहस नहीं होता है, किसी लड़की के साथ गलत हो रहा है या किसी भले मानस पुरुष के साथ गलत हो रहा है माता-पिता लुट रहे हैं, बेटियां घट रही है। अक्सर जब घटनाएं होती हैं तो आस-पास के कोई पड़ोसी भी मदद के लिए नहीं आते हैं क्योंकि वह हो रही घटनाओं को भी नकार देते हैं और सोचते हैं हम पुलिस केस में क्यों फंसे! इसलिए वह अपने अपने घरों के दरवाजे बंद करके चुप हो जाते हैं और हो रही वारदात पर ध्यान नहीं देते हैं और वह लुटती हुई महिला केवल चिल्लाती रह जाती है। पुलिस वालों के सामने ही कोई व्यक्ति जो जुल्म से परेशान होकर आत्महत्या करने की कोशिश करता है उस समय भी कई पुलिसवाले और तमाशा देखने वाले लोग भी मौजूद होते हैं लेकिन वह किसी प्रकार से उसे बचाने की कोशिश नहीं करते हैं तब तक युवक पूरी तरह आग में जल चुका होता है।

 

कभी-कभी कुछ स्त्रियों के साथ इतना बुरा हादसा हो जाता है जब उनका बलात्कार किया जाता है और तमाम सबूतों के बावजूद भी वह अपने सुरक्षा चाहती है, फिर भी पुलिस इस पर कार्यवाही करने के लिए नाकाम रहती है सारे सबूत बेकार हो जाते हैं, इससे तंग आकर वह स्त्री न्याय न मिलने पर आत्महत्या करने की चेष्टा करती है। इसी प्रकार ऐसी कई विधवायें भी है जिनको आश्रम का प्रलोभन देकर उनके साथ गलत करने वाले लोग सामने उभर कर भी आए, लेकिन इस पर पुलिस प्रशासन कुछ नहीं कर पाई और उस विधवा स्त्री को भी न्याय नहीं मिल पाया। ना जाने इस समाज को क्या होता चला जा रहा है। यह कैसी नपुंसकता है? यह मानव की भावनाओं का कैसा हनन है? जहां पर बेबसी और सिर्फ तमाशा देखती रह जाती है जनता! मदद के लिए हाथ उठाने वालों के हाथ बंधे हुए होते हैं। मूकदर्शक बनी हुई यह जनता हिजड़ों की तरह खड़ी रहती है तमाशा देखने के लिए। इनकी आंखों में अनजान बनने की कला होती है यह कैसी संस्कृति है? और यह कैसी जागरूकता है? क्या प्राणी का फर्ज मात्र संवेदनहीन होना होता है? आज ऐसे सवाल है जिसके जवाब भी ढूंढने बहुत जरूरी होते हैं। वह दिन भी चले गए जब किसी अनजान की रक्षा करने के लिए जान की बाजी लगाने वाले पड़ोसी हुआ करते थे उनकी रक्षा के लिए सचेत रहते थे, लेकिन आजकल ऐसे रिश्तेदारों और पड़ोसी कोई काम नहीं आते। यदि मनोवैज्ञानिक कारण देखा जाए तो आज के व्यक्ति की पहली जरूरत अपने जीवन की रक्षा करना होता है जो मानव मूल्यों पर हावी है। हर कोई इस बात को लेकर पहले डरता है कि कहीं उसकी जान को खतरा ना हो, इसलिए अपनी सुरक्षा के लिए हर संभव प्रयास करते हैं। इसमें कुछ भी गलत नहीं है अपनी जान से प्यारी नहीं होती! यदि पड़ोस की कुछ महिलायें इकट्ठा होकर हो रहे जुल्म के खिलाफ आवाज उठाती है और अन्य महिला को बचाती है तो उस पर भी चोर डाकू उन्हें घायल कर देते हैं और इस तरह वह अपनी जान जोखिम में डाल बैठती है, लेकिन अपनी जान के मोह में दूसरे की मदद ना करना स्वार्थ और कायरता है! मानवता की जिम्मेदारी तो यही है कि अपनी जान बेशक जोखिम मे ना डालें, किंतु पुलिस को फोन करना तो कर्तव्य है ना उनका! यदि ऐसा करे तो लुटेरे पुलिस के शिकंजे से कभी ना बच पाएंगे।

आजकल की व्यस्तता भरे जीवन में लोग गुमनामी की जिंदगी जी रहे हैं, एक दूसरे से मेल मिलाप कतई जरूरी नहीं माना जाता, नतीजा दूरियां बढ़ती जाती है और यहां तक कि पास वाले या ऊपर नीचे वाले फ्लैट में कौन रहता है? कैसा है? आदि का पता भी नहीं चल पाता है। जब मुसीबत आती है तो संवेदनहीनता साफ नजर आती है। जब किसी का किसी से कोई वास्ता ही नहीं सुख-दुख में, किसी के कोई साथ ही नहीं है! तो ऐसे पड़ोसी और रिश्तेदार किस काम के? फिल्मों में होने वाली वारदातों को जब लोग देखते हैं तो उनके अंदर एक गुस्सा उबलता है कि काश हम होते तो इस वारदात को रोक सकते थे, लेकिन जब यही वारदात वास्तविक जीवन में दिखाई देती हैं तो वह मदद के लिए सामने नहीं आते हैं। बस से कुचलने वाली वारदातें भी बहुत अधिक होती है। रास्ते पर चल रहे व्यक्ति के ऊपर से से ट्रक चढ़ा देने की घटना लोग आम समझ लेते है और व्यक्ति मरणासन्न अवस्था में जमीन में तड़पता रहता है, लेकिन कोई भी जनता आगे आकर उसे हॉस्पिटल नहीं पहुंचाती है और उसके वीडियो बनाने लग जाती है। यदि वह समय रहते उस व्यक्ति को अस्पताल पहुंचा देते तो शायद उसकी जान बच जाती और फिर मन में यही सोचते हैं वो लोग “ऐसे एक्सीडेंट तो रोज ही होते हैं किस-किस को बचाते फिरे!”

कई लोग इसलिए भी मदद करने के लिए आगे नहीं बढ़ते हैं, यदि वह दूसरे की मदद करेंगे तो उन्हें कई तरह की परेशानियां झेलनी पड़ेगी! इसलिए एक नई संस्कृति उभर कर नहीं आती है। लोग एक दूसरे की समस्या में रुचि नहीं लेते हैं, पुलिस का डर, बयान देने में फंसने का खतरा, कोर्ट कचहरी के चक्कर लगाने का डर और सबसे ज्यादा अपराधियों से दुश्मनी लेने का डर बना रहता है, इसलिए लोग मदद करना नहीं चाहते हैं। आज की भागदौड़ की जिंदगी में जहां कोई अपने परिवार के लिए वक्त नहीं निकाल पाता वह दूसरों के झमेले में कौन फंसना चाहता है? मानव की संवेदना का हनन का पहलू दिखाई देता है सामने खड़ा दोस्त बात-बात पर दुश्मनी पर उतारू हो जाता है और अपने दोस्त की चाकू मारकर हत्या भी कर देता है। राह चलती लड़कियों को चोर उचक्के लूट लेते हैं, किसी के मुंह में तेजाब फेंक देते हैं और यह चाकू मार देते हैं, लेकिन जनता खड़ी देखती रहती है! यह प्रथा तो महाभारत काल से चली आ रही है जब द्रौपदी भरी सभा में अपमानित हो रही थी तो अंधे धृतराष्ट्र कुछ नहीं कर पाए थे। इसी तरह मूकदर्शक बनी हुई जनता कुछ नहीं कर पाती है इसी तरह नग्नता का तमाशा देखती रहती है।

इंसान के अंदर क्रूरता और स्वार्थ कितना ज्यादा बढ़ गया है, यदि किसी को कुछ भी बोलो तो कोई फर्क पड़ता ही नहीं है। अपने हितों की रक्षा करना एकमात्र मकसद रह गया है, लेकिन लोगों के साथ हो रहे गलत पर कोई आगे आकर सामना नहीं करना चाहता है। नजदीकी रिश्तेदारों से लेकर बाहरी व्यक्ति सभी एक दूसरे के लिए मदद के लिए कभी आगे नहीं आते। किसी को फाइनेंसियल दिक्कत भी हो तो उस वक्त उस व्यक्ति के कोई काम नहीं आता है और लोग ऐसे दम भरा करते हैं कि “अरे हम तो हैं! जब जरूरत होगी तब बुला लेना”! पर मुसीबत के समय यह लोग गायब दिखते हैं। आज समाज अपराधियों के आगे नपुंसक होता चला जा रहा है और घुटने टेक दिया है। अपनी मजबूरियों के जाल में मकड़ी की तरह इस कदर वह फंसा हुआ है कि दूसरे के लिए कुछ नहीं कर पाता। आज समाज को जरूरत है जागरूकता की, नैतिक आत्मबोध जागृत करने की, ताकि दूसरों का मुसीबत में साथ देने में हिचकिचाहट ना हो। यदि किसी को खतरे में जुझता हुआ देखे, तो बेशक अपनी जान जोखिम में ना डालें! लेकिन एक नागरिक होने की सामाजिक जिम्मेदारीं निभाने का प्रयास तो करना ही चाहिए। इसमें किसी और की सहायता लेनी भी पड़े और भीड़ भी जमा करनी पड़े और मदद मंगवानी पड़े या पुलिस को फोन भी करना पड़े, ऐसा कुछ भी हो तो हिचकिचाना नहीं चाहिए। यही सामाजिक दायित्व नैतिक कर्तव्य और समय की पुकार है।

 

®लेखिका का सर्वाधिकार सुरक्षित

(नोट:उपरोक्त लेख में सारे विचार लेखिका के है न्यूज़ ब्लास्ट का उसके विचारों से सहमत होना आवश्यक नही है)

Sameer Shahi

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